शीघ्रफलदायनी भगवती दुर्गा
दुर्गा कलि काल में भी शीघ्रफलदायनी है। इसके विभिन्न स्वरूपों में विभिन्न शक्तियों निहित हैं। गृहस्थ साधकों के लिए ये कल्पवृक्ष है। माहिष बलि से एवं महिष के सिर को अर्पित करने से शीघ्र प्रसन्न होती है। गढवाल में एक लोकोक्ति है कि भगवती को प्रसन्न करना हो तो उसे भैंस का मुण्ड अर्पित कर दो।
शूलिनी के साधक के दृष्टिपात मात्र से भूतप्रेतादि शरीर पर आविष्ट होने वाले दुष्टग्रह शरीर छोड कर भाग जाते हैं। सांप, बिच्छु आदि का जहर नष्ट हो जाता है। जातक षट्कर्म करने की योग्य हो जाता हे। सिद्धि हेतु इसके 14 लक्ष मंत्रजप करने होते हैं एवं 14 हजार की संख्या में विशिष्ट द्रव्यों से आहुति होती है। इससे यह विद्या सिद्ध हो जाती है। 1 वर्ष तक एक निश्चित संख्या में नित्य हवन करने से यह एक अप्रतिहत शक्ति प्रदान करती है, जिसका प्रयोग निष्फल नहीं जाता।
जातवेदस् दुर्गा का साधक चाहे तो किसी भी बसे बसाये नगर को उजाड सकता है, चाहे तो पूरे नगर को किसी भी प्रकार के तंत्रमंत्रादि प्रयोगों से सुरक्षित कर सकता है। इसका साधक कृत्या प्रयोगों को नष्ट कर देता है।
वनदुर्गा का साधक मदमस्त हुये हाथियों तक की गति कीलित कर सकता है। इसका प्रयोग हमने रानीपोखरी में छ: मास तक चले मृत्युंजयमहामंत्र के पांचकुण्डीय यज्ञ में किया था जब हाथियों, वाराह एवं वानरों ने यज्ञशाला में उत्पात मचाना प्रारम्भ कर दिया था। सबका कीलिन हो गया था।
आसुरी दुर्गा क्रुद्ध हुये राजा को भी अनुकूल बना सकती है। शीघ्र फलदायनी विद्या है।
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