आकाश में शब्द संचरण, मंत्र सिद्धि
नमश्शिवाय
आकाश का गुण शब्द कैसे है जब आकाश में ध्वनि का संचार सम्भव ही नहीं? शब्द और ध्वनि में क्या भेद है? मंत्रों से सिद्धि कैसे प्राप्त होती है?
शंका — शास्त्र कहते हैं कि आकाश का गुण शब्द है किन्तु यह विज्ञान द्वारा सिद्ध है कि किसी भी प्रकार की आवाज बिना माध्यम के संचार नहीं कर सकती। अत: आकाश में शब्दों की गति सम्भव नहीं। अन्तरिक्ष में किसी भी प्रकार की आवाज गति नहीं कर सकती। तो क्या शास्त्र गलत हैं?
समाधान — वैज्ञानिक शोध भी सही है और शास्त्र भी। यह भी तथ्य है कि अन्तरिक्ष में किसी भी प्रकार की ध्वनि संचार नहीं कर सकती, क्योंकि ध्वनि किसी माध्यम से ही संचार कर सकती है। अर्थात अन्तरिक्ष में आप किसी के कान के पास डीजे भी बजा दें तो उसे कुछ सुनायी नहीं देगा। क्योंकि किसी माध्यम के अभाव में ध्वनि कान तक पहुंच ही नहीं पायेगी। जिससे सिद्ध होता है कि ध्वनि आकाश का गुण नहीं हो सकती। यहां पर शास्त्र पर श्रद्धा रखने वाले निरुत्तर से होते हमने देखेे हैं। तथापि हम इसका उत्तर बताते हैं।
हमें ध्वनि एवं शब्द में अन्तर समझना होगा। शब्द भाव रूप में गुदा एवं लिंग कें मध्य मूलाधार में स्थित होता है। ध्वनि कण्ठ, जिह्वादि के प्रयोग से उस शब्द का ध्वनि के रूप में संसारिक व्यवहासिद्धि हेतु प्रकटीकरण होता है। दोनों में अन्तर है। शब्द वास्तव में भाव रूप में गुदा एवं लिंग कें मध्य मूलाधार में स्थित होता है इसे भावावस्था को परावाक् भी कहा जाता है। बोलने की विविक्षा होने पर इसमें स्पन्द होता है इस स्पन्दनावस्था को पश्यन्ती कहा जाता है। इस पश्यन्ती वाक् की अनुभूति मूलाधार से मणिपूर पर्यन्त होती है। नाभि से हृदय पर्यन्त मध्यमा वाक् की अभिव्यक्ति कही गयी है। हृदय से मुखपर्यन्त वैखरी वाक् होती है जिससे कि सारे संसारिक व्यवहार सिद्ध होते हैं। इस वैखरी से ही वर्णों की उत्पत्ति होती है। यह वैखरी वाक् स्वर, काल, स्थान, प्रयत्न तथा अनुप्रदान भेद से वर्णों को जन्म देती है।
यही वह ध्वनि है जिसकी बात विज्ञान करता है और निश्चित ही इसे संचार हेतु वायु आदि माध्यम की आवश्यकता होती है। किन्तु शब्द को संचार हेतु आकाश मात्र की आवश्यकता होती है। यह अत्यन्त सूक्ष्म होता है एवं विशेष यौगिक शक्तियों द्वारा ही पकड में आता है। शास्त्रों में जो दक्षिणामूर्तिजी का मौन व्याख्यान प्रसिद्ध है जिससे उन्होंने सनकसनन्दनादि के सारे संशय छिन्न कर दिये थे, वह मौन व्याख्यान इस परा, पश्यन्ती वाणी में ही हुआ था। हलांकि बौद्धों ने इसका विकट विपरीत अर्थ निकाल लिया एवं कुछ सनातनियों ने भी इसे ग्रहण कर लिया कि गुरु भी चुपचाप बैठा रहे और शिष्य भी उसके सामने चुपचाप बैठा रहे और उसके सारे संशय स्वयं ही छिन्न हो जायेंगे।
यह जो शब्दगुण कहा गया है यह परावाक् ही है। इसे ही कुण्डलिनी भी कहा जाता है। इसको अपने विस्तार के लिए आकाश की आवश्यकता होती है। यही इस संसार का प्रसव करने वाली सविता है। मूलाधार स्थित यह शक्ति ही जब स्वयं को अभिव्यक्त करने की इच्छा करती है तो यह त्रिगुणित, चतुर्पंचषट्सप्ताष्टगुणित, दश, द्वादश एवं पंचादशगुणित हो इस संसार प्रपंच के रूप में अभिव्यक्त होती है। इस कुण्डलिनी रूपी परावाक् का विस्तार ही यह सारा विश्व है। यह जब त्रिगुणित होती है तो यही ओम्कार, ह्रीं, त्रिगुणों, त्रिदेवों, त्रिलोकों, त्रिदोषों, वेदत्रयी के रूप में अभिव्यक्त होती है।
इसी प्रकार यही मूलशक्ति सारे वर्णों, सारे मंत्रों, सारी मूर्तियों, सारी कलाओं के रूप में अभिव्यक्त होती है। इससे ही सारे अकारादि वर्ण उत्पन्न होते हैं। यह अकारादि सारे वर्ण केवल ध्वनिमात्र एवं संसार व्यवहार हेतु अभिव्यक्ति के माध्यम मात्र नहीं हैं अपितु ये भगवती परावाक् कुण्डलिनी का शरीर हैं। इनमें अनन्त शक्तियों के भण्डार हैं। इस शक्ति के द्वारा इस संसार को कोई भी कार्य असम्भव नहीं, कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं। इनमें अनन्त रहस्मयी शक्तियां छिपी हैं, जिन्हें हम गुरु के मार्गनिर्देशन में तंत्रविधान से प्रकट करते हैं। तंत्र में हम इन्हें मातृकाशक्ति कहते हैं। यह सारा प्रपंच वर्णमय ही है, इस भगवती परावाक् का विस्तार ही है।
यह सारा प्रपंच इन मातृकाशक्तियों से ही नियंत्रि होता है। यह वर्ण ही वह बीज हैं जिसमें पूरा विश्व बीजरूप में अव्यक्त है। जिस प्रकार बीज को खाद, पानी आदि देने से वह वृक्ष के रूप में अभिव्यक्त हो जाता है उसी प्रकार इन वर्णों के सम्यक् संयोजन, मनन, बार बार सम्यक् उच्चारण, अर्चन एवं हवनादि की प्रक्रिया से इन वर्णों में बीजरूप में निहित अद्भुत शक्तियां प्रकट हो जाती हैं। इसे ही मंत्रसिद्धि कहा जाता है, जिससे कि आप में अद्भुत शक्तियां आ जाती हैं। मंत्रों की क्षमता एवं प्रभाव सामान्य मनुष्यबुद्धि से परे है। अत: उनका चमत्कृत होना या अविश्वास की भावना होना सामान्य ही है।
वर्णों के मंत्र प्रयोग हेतु उनके सम्यक् संयोजन, उनके स्वरूप, शक्ति, देवता, शरीर में उनकी स्थिति आदि का ज्ञान होना आवश्यक है तभी सम्यक् साधना हो पाती है। सम्यक् साधान से ही सिद्धि प्राप्त होती है।
अगली पोस्ट में प्रयास करेंगे कि मंत्रों के प्रभाव को कैसे बढ़ाया जा सकता है। मंत्रों का प्रभाव क्या केवल ध्वनि की फ्रीक्वेंसी का प्रभाव मात्र है?
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