अहं ब्रह्मास्मि, True Identity and The Ship of Theseus
True Identity and The Ship of Theseus
नमश्शिवाय,
बौद्धों का दर्शन है कि संसार में कुछ भी अपरिवर्तनशील नहीं है। सबकुछ बदल रहा है, अर्थात सबकुल क्षणिक है। विज्ञान के अनुसार भी 5 से 7 वर्ष में शरीर का प्रत्येक अणु परमाणु परिवर्तित हो जाता है। एटामिक लेवल पर सबकुछ बदल जाता है। इसलिए बौद्ध दर्शन इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि There is no true self. सबकुछ परिवर्तनशील एवं क्षणिक है, चेतना भी। अभी जो चेतना है वह अगले क्षण नहीं है, अगले क्षण जो चेतना है वह नई चेतना है।
यहीं एक दार्शनिक paradox भी है, The Ship of Theseus paradox. जो यह इस प्रश्न को उठाती है कि क्या वह वस्तु वही रहती है अगर जिन अवयवों से वह बनी है समय के साथ यदि व सारे परिवर्तित कर दिये जायें?
नये संस्करण में इसे कुछ और सम्वर्द्धित कर दिया गया, कि एक Ship है The Ship of Theseus. अब समय समय पर इसके सारे अवयव बदलते रहे। जो जो इसके अवयव परिवर्तित किये गये उनसे एक नया Ship बनाया गया। एक समय ऐसा आया कि सारे अवयव परिवर्तित कर दिये गये। कुछ भी पुराना नहीं बचा। और उन सारे पुराने अवयवों को जोडकर, जो कि The Ship of Theseus से बदले गये थे, वैसा ही Ship बनाया गया। अब वास्तविक Ship of Theseus कौन है?
वास्तव में यह हमारे सामने true identity का प्रश्न खडा करता है, कि हमारी true identity क्या है?
हमारे शास्त्र इसका उत्तर देते हैं कि सबकुछ परिवर्तित होने पर भी कुछ है जो अपरिवर्तित रहता है, जिसके कारण हम कहते हैं कि ये मैं हूं, और वह अपरिवर्तनशील वस्तु चेतना है।
तथापि यहां समस्या है। समस्या यह है कि उस चेतना से हमारी true physical identity सिद्ध नहीं होती। क्योंकि वह चेतना तो सर्वत्र ही एक जैसी है।
भौततिक स्तर पर True Identity का निर्धारण कैसे हो? यदि आप कहें स्मृति से, तो स्मृति भी परिवर्तनशील हैं। और अगर ब्रेन मैपिंग के माध्यम से आपकी स्मृतियां किसी अन्य में डाल दी जायें तो पुन: हमारे सामने true identity का प्रश्न खडा हो जाता है।
यदि पहचान शरीर से है, तो हम 10 वर्षों में पूरी तरह बदल जाते हैं।
यदि पहचान मन से है, तो हमारा मन भी विचारों और अनुभवों से निरंतर बदलता रहता है।
यदि पहचान चेतना से है, तो चेतना तो सबमें एक समान है, फिर व्यक्तिगत पहचान कहाँ स्थित है?
अत: यहां पर बौद्ध दर्शन मान्य है कि व्यक्तिगत पहचान एक “सतत प्रवाह” है, न कि स्थिर वस्तु। भौतिक रूप से हम बदलते रहते हैं, परंतु हमारी स्मृति और चेतना हमें जोड़कर रखती है। इसलिए, व्यक्तिगत पहचान Continuity of Memory and Self-awareness है, न कि कोई स्थिर भौतिक या आध्यात्मिक वस्तु।
तथापि वेदान्त कहता है कि इस सब परिवर्तनशील संसार रुपी चलचित्र जिस अपरिवर्तित पर्दे पर चल रहा है वह चेतना है। वेदान्तशास्त्र चेतना को क्षणिक एवं परिवर्तनशील नहीं मानता। ये बहुत बडा अन्तर है। भौतिक जगत तो वेदान्त दृष्टि से भी परिवर्तनशील ही है तथापि चेतना अपरिवर्तनशील, सदैव एक ही ही रहने वाली है। यह चेतना ही किसी की True Identity हो सकती है, अन्य कुछ नहीं। अहं ब्रह्मास्मि ही एकमात्र True Identity है। उसके अतिरिक्त सबकुछ Continuity of everchanging Memory and Self-awareness है। जैसे गंगा तो गंगा ही रहती है किन्तु आप गंगा से बाहर आकर पुन: उसी गंगा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। उससे लाखों गैलन पानी बह चुका होगा, लाखों गैलन नया आ चुका होगा। जल प्रवाह की Continuity के कारण हम कहते हैं कि वही गंगा है तथापि बहुत कुछ परिवर्तित हो गया होता है।
बौद्धों ने चेतना को भी क्षणिक जान माया के साथ ही ब्रह्म, आत्मा को निरसन कर दिया। बौद्ध दर्शन यह तो बता देता है कि असत् क्या है किन्तु सत् का ज्ञान न होने से, असत् को हटाने से एवं सत् का भान न होने से वहां शून्य उत्पनन हो जाता है। क्योंकि जो है नहीं वह हटा दिया जो है उसका ज्ञान नहीं तो शून्य ही सम्भावना है। अत: बौद्ध दर्शन शून्य पर विराम प्राप्त करता है। वेदान्त न केवल मिथ्या का बाध करता है वह सत् को भी बताता है। कि मिथ्या का बाध को जो स्वयं प्रकाशित चेतना रह जाती है वही सत् है। बौद्धों ने शून्य को जिससे जाना वह चेतना ही त्रिकालाबाधित सत् है।
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